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Monday, November 15, 2010

तृष्णा

इन  बारिश की बूंदों को 
तन  से लिपटने  दो 
प्यासे इस चातक का 
अंतर्मन तरने दो 


बरसो की चाहत है 
बादल में ढल जाऊं 
पर आब-ओ-हवा के 
फितरत को समझने दो 

फिर भी गर बूंदों से 
चाहत  न भर पाए 
मन की इस तृष्णा को 
बादल से भरने दो

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना है!
    कम शब्दों में काफी कुछ कह गई आपकी रचना!

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  2. सुंदर भावाभिव्यक्ति। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    फ़ुरसत में .... सामा-चकेवा
    विचार-शिक्षा

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  3. "अनामिका का नाम हो रहा है
    अच्छा लिखती हैं पता चल रहा है
    कलम में स्याही गहरी है
    महसूस हो रहा है"
    बधाई,लिखते रहें और मोहते रहें

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