इन बारिश की बूंदों को
तन से लिपटने दो
प्यासे इस चातक का
अंतर्मन तरने दो
बरसो की चाहत है
बादल में ढल जाऊं
पर आब-ओ-हवा के
फिर भी गर बूंदों से
चाहत न भर पाए
मन की इस तृष्णा को
बादल से भरने दो
"यहाँ देखो,भारतमाता धीरे-धीरे आँखे खोल रही है . वह कुछ ही देर सोयी थी . उठो, उसे जगाओ और पहले की अपेक्षा और भी गौरवमंडित करके भक्तिभाव से उसे उसके चिरंतन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो!" ___स्वामी विवेकानंद
बहुत सुन्दर रचना है!
ReplyDeleteकम शब्दों में काफी कुछ कह गई आपकी रचना!
सुंदर भावाभिव्यक्ति। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteफ़ुरसत में .... सामा-चकेवा
विचार-शिक्षा
"अनामिका का नाम हो रहा है
ReplyDeleteअच्छा लिखती हैं पता चल रहा है
कलम में स्याही गहरी है
महसूस हो रहा है"
बधाई,लिखते रहें और मोहते रहें