क्षण-भंगुर ये काया
भटकाती है माया
मन के इस भटकन से
बारम्बार छलते है
भटकाती है माया
मन के इस भटकन से
बारम्बार छलते है
सावन फिर आयेगा
बदरा फिर छाएगा
ऋतुओं को आना है
आकर छा जायेगा
बदरा फिर छाएगा
ऋतुओं को आना है
आकर छा जायेगा
मन के इस पंछी को
तन के इस पिंजरे में
सहलाकर रखना है
वर्ना उड़ जायेगा
तन के इस पिंजरे में
सहलाकर रखना है
वर्ना उड़ जायेगा
रे बंधु सुन रे सुन
नश्वर इस काया की
माया में न पड़ तू
वर्ना पछतायेगा
नश्वर इस काया की
माया में न पड़ तू
वर्ना पछतायेगा
मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता.
ReplyDeletebilkul sahi kaha hai ...badlav hamesha chalta rehta hai.
ReplyDeleteसब जानते हुए भी लोंग इसी माया में पड़े रहते हैं ..प्रेरणादायक रचना
ReplyDeleteरचना में आपकी वर्जना सही रही!
ReplyDeleteरबिन्द्र गान ;)
ReplyDeleteलिखते रहिये ...
यथार्थ का चित्रण करती रचना।
ReplyDeleteमन के इस पंछी को
ReplyDeleteतन के इस पिंजरे में
सहलाकर रखना है
वर्ना उड़ जायेगा
vah ji vah kya baat hai
bahut sundar sandesh!
ReplyDeletesaarthak rachna!!!
कविता के स्वर बहुत कुछ कह रहे हैं, सब जानते हुए भी हम इस भ्रम जाल से मुक्त कब हो पाते हैं.
ReplyDeleteati sundar
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
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