आंसुओं की झड़ी लगी
कहीं समंदर न बन जाए
टूटा दिल बिखर गया पल
दर्द-ए-दिल से जीया न जाए
धुआँ उठा जब सपनो से
राख से आँगन सजा दिया
दीया जो प्यार से जलाया था
गम के झोकों ने बुझा दिया
इस गीले मन को लेकर हम
क्या यूं ही जीये जायेंगे ?
इन कांच की बूंदों को मगर
क्या यूं ही लुटाते जायेंगे ?
ये कैसी दुनिया है जहां
गम आगे पीछे चलता है
खुशियों को इज़ाज़त है ही नहीं
वो बेगाना सा फिरता है
इन आंसुओं की समंदर को
गर कोई किनारा मिल जाए
धुंआ जो उठा ये दिल जो टूटा
ज़ख्मो को राहत मिल जाए
काश ये राहत उसी से मिले
जिसने ज़ख्मो को दाग़ दिया
रूठे हुए किसी अपने ने
शायद रिश्ते का आग़ाज़ किया
बहुत सुन्ग कविता!
ReplyDeleteपढ़कर हम भी आँसुओं के सैलाब में बह गये!
सॉरी!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर! का सुन्ग हो गया था पहले कमेंट में!