पत्तो से टपकती वो बारिश की बूंदे
छन से गिरकर वो खिडकी को चूमे
परदे की ओत में छिपता वो बादल
गरजते-बरसते आसमा में झूमे
धरती भी बन मस्त कलंदर
वो नदियाँ भी बहे जो थे कभी अन्दर
हरी-हरी ज़मी पे मेढ़को का शोर
बाँध पायल जंगल में नाच उठा मोर
कतरा दरिया का बन गया समंदर
नई-नवेली धरती दिखे अति सुन्दर
बरसते बादल को कर लो सलाम
बादल तो चंचल है उसे नही है विराम
जाए कही भी बादल संदेसा ले जाए
बरसो इतना की धरा लहलहाए
मरूभूमि पर भी रखे कृपादृष्टि
लगातार बरसो जहां चाहिए अनवरत वृष्टि
मरू हो जाए शीतल ताप भी कम हो जाए
बंजर धरती भी फसल से लहलहाए
बारिश की बूंदों का अहसान रहेगा
किसानो के चेहरे पर मुस्कान बिखरेगा
"यहाँ देखो,भारतमाता धीरे-धीरे आँखे खोल रही है . वह कुछ ही देर सोयी थी . उठो, उसे जगाओ और पहले की अपेक्षा और भी गौरवमंडित करके भक्तिभाव से उसे उसके चिरंतन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो!" ___स्वामी विवेकानंद
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Monday, August 30, 2010
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सुन्दर प्रयास ... बधाई
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